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हास्य-व्यंग्य >> महामूर्ख मंडल

महामूर्ख मंडल

संसार चन्द्र

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :99
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 638
आईएसबीएन :81-7028-189-x

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डॉ. संसार चन्द्र के मनभावन लेख पाठक को गुदगुदाते हुए बहुत कुछ विचारने पर विवश कर देते है...

Mahamurkh Mandal - A hindi Book by - Sanasar Chandra महामूर्ख मंडल - संसार चन्द्र

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

तीव्र गति से भागते आधुनिक जीवन के कष्ट संघर्षों और तनावों में प्रस्तुत महामूर्ख मंडल होली की मस्तानी हवा की तरह हास्य ही नहीं बिखेरती, मीठी चिकोटी भी काटती है। हिन्दी के जाने-माने प्रतिष्ठित हास्य-व्यंग्य लेखक डॉ. संसार चन्द्र के ये मनभावन लेख पाठक को गुदगुदाते हुए बहुत कुछ विचारने पर विवश कर देते हैं। मुहावरों का प्रयोग सूझ-बूझ और कौशल से किया गया है। जिससे भाषा में प्रवाह आने के साथ ही अर्थों में नयी आभा आ गई है। लेखक हंसी-हंसी से मानव जीवन की विसंगतियों को इस तरह उघाड़ता है कि पाठक समाज की कड़वी सच्चाइयों का बोध करते हुए भी मुस्करा पड़ता है। आज लोग अपनी शराफत से कायल ही नहीं करते, घायल भी करते हैं और मूर्खता मानव का एक ऐसा गुण तथा धर्म बन गई है कि वह उसका निर्वाह आजीवन करता है। विश्वास न हो तो यह पुस्तक पढ़िए, आप खुद मान जाएगे।

हास्य-व्यंग्य के संबंन्ध में


प्रेम, करुणा आदि की तरह हास्य भी मनुष्य की स्थायी मनोवृत्ति है जिसका उदय यथावसर होता रहता है। मानव जीवन के स्वस्थ विकास के लिए इसकी भूमिका कितनी अनिवार्य है, इस पर दो मत नहीं हो सकते। यह विधाता की एक ऐसी अनुपम देन है, जो विकट से विकट परिस्थितियों में उसके मनोबल को शिथिल नहीं होने देती। हास्य की शीतल छाया में उसकी जीवनयात्रा की थकान स्वतः काफूर होने लगती है और वह ताज़ादम होकर अपनी मंजिल की ओर निकल भागता है।

साहित्य में भी हास्य की व्यापकता सर्वथा अक्षुण्ण है। स्मित से लेकर अतिहास तक तथा हाज़िरजवाबी, ताना टिचकर आदि से लेकर वक्रोक्ति दृष्टि से सभी हास्यांगों का अपना-अपना अलग महत्व है परन्तु सबसे अधिक प्रभावपूर्ण एवं पैना होने का गौरव व्यंग्य को ही प्राप्त है। व्यंग्य का अंग्रेजी पर्याय ‘सेटायर’ जो लेटिन भाषा का शब्द है। इसका मूल रूप ‘सेतुरा’ है जिसका अर्थ है ‘गड़बड़झाला’। प्राचीन में यह शब्द परनिन्दा के अर्थ में प्रयुक्त होता था।
सामाजिक विकृतियों के विरुद्ध आवाज व्यंग्यकार का प्रमुख उद्देश्य होता है। वह उपहास, निन्दा, आक्षेप आदि विभिन्न अस्त्र-शस्त्र संभालकर मानवमूल्यों की सुरक्षा के उद्देश्य से मैदान में उतरता है। समाज की मुखौटापरस्ती, अनैतिकता तथा आडम्बर से पीड़ित उसका मन व्यंग्य के माध्यम से फूट पड़ता है। व्यंग्य के पीछे व्यक्तिगत लांछन, अपमान अथवा पराजय की भावना भी देखी जाती है, जिससे उसका अहं प्रताड़ित होता है। इन सभी विघटनाओं का प्रतिकार करने के लिए उसके पास मात्र एक ही विकल्प शेष रह जाता है, और वह है- व्यंग्य।

सामान्यतः हास्य और व्यंग्य एक दूसरे के पूरक होकर चलते हैं। उद्देश्य की दृष्टि से भी दोनों समगोत्रीय हैं। हास्यकार भी मानव-दुर्बलताओं के प्रति उतना ही सचेत है, जितना व्यंग्यकार। फिर भी भावना के एक विशेष स्तर को स्पर्श करते ही दोनों के रास्ते एक दूसरे से अलग हो जाते हैं। हास्यकार मनुष्य की सीमाओं, त्रुटियों, कमजोरियों आदि के प्रति सहिष्णु होता है जबकि व्यंग्यकार के सब्र का पैमाना छलक उठता है और वह आक्रमण रूप धारण कर लेता है। एक अंग्रेजी विद्वान् के शब्दों में- ‘हास्यकार केवल खरगोश का पीछा ही करता है जबकि व्यंग्यकार शिकारी कुत्तों से लैस होकर उस पर टूट पड़ता है।’

वक्रोक्ति और व्यंग्य का चोलीदामन का संबंध है। यह वक्रोक्ति काव्य-शास्त्रीय वक्रोक्ति से सर्वथा भिन्न है और अंग्रेजी के ‘आयरनी’ शब्द का प्रतिरूप है। ‘आयरनी’ का मूल जर्मन भाषा के ‘आयरोनिया’ शब्द से विकसित हुआ है, जो फैंच कॉमेडी के ‘आयरन’ नामक एक निन्दा पात्र की विशेषताओं को चित्रित करता है। ‘आयरनी’ की मूलगत विशेषता ‘उक्ति की वक्रता’ है जिसकी सहायता से आलम्बन का पर्दा उघाड़ा जाता है।
इस प्रकार वक्रोक्ति जीवन के छिद्रों को उघाड़ने में व्यंग्य की सहायता करती है। वाग्वैदग्ध्य जिसका अंग्रेजी पर्याय विट (wit) है। व्यंग्य का ही एक प्रवल प्रेरक तत्त्व है। कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने इसे हास्य का सहगामी माना है परन्तु स्मरण रहे कि हास्य में भावपक्ष प्रबल होता है, जबकि व्यंग्य में बौधिक सजगता की प्रधानता रहती है। इसलिए वाग्वैदग्ध्य व्यंग्य के अधिक निकट है। बात की मूलध्वनि को तत्काल पकड़कर बिजली की गति से उसका उचित उत्तर दे पाना वाग्वैदग्ध्य की ही करामात है। इसके हाजिरजवाबी, व्युत्पन्नता आदि नाम भी इसी संकेत के अनुकूल हैं।
व्यंग्य को अधिक तीखा, पैना और घना बनाने में उपहास की भूमिका सर्वोपरि है। इससे प्रहारात्मक की प्रवृत्ति पूरे जोरों पर होती है।

इसीलिए यह आलम्बन की खिल्ली उड़ाने का निम्न, अशिष्ट एवं अभद्र प्रयास माना गया है। इस मनोवृत्ति का अंग्रेजी पर्याय सरकाज़्म (sarcasm) है इसमें किसी की नुक्ताचीनी अथवा छीछालेदार आदि करने का भाव अपनी पराकाष्ठा पर होता है। इसलिए पाश्चात्य विद्वानों ने इसे तिरस्कार एवं आक्रोश का शस्त्र कहा है।
व्यंग्य में सफल समर्थन-पोषक जो भी तत्त्व ऊपर चर्चित-विवेचित हुए हैं, वे किसी न किसी रूप में व्यंग्य से केवल अनुस्यूत ही हैं बल्कि व्यंग्य को सम्प्रेषित भी करते हैं। व्यंग्य की मूल विशेषता यह है कि इन सभी तत्त्वों से संवेदना के स्तर पर किसी न किसी रूप में जुड़ते हुए भी वह अपने मूल रूप में उनसे सर्वथा भिन्न अपना एक स्वतंत्र प्रभुत्व बनाए रखता है। इन सभी को आत्मसात् करते हुए वह अपनी एक अलग स्वतंत्र पहचान बनाए हुए है। इनमें कोई भी रूप अपनी एकांगिता में अथवा समग्रता में व्यंग्य की व्यापकता को समेट पाने में सर्वथा असमर्थ है और यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है।

प्रस्तुत प्रसंग में व्यंग्य के काव्यशास्त्रीय पक्ष का भी सामान्य परिचय आवश्यक हो जाता है। भरतादि काव्यशास्त्र मनीषियों के युग में व्यंग्य का कोई स्वतन्त्र चिंतन-अध्ययन हुआ हो, इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता। वस्तुस्थिति यह है कि व्यंग्य एक दीर्घ अंतराल एक मात्र हास्य रस की छत्रछाया में ही अपनी साहित्यिक यात्रा खेता रहा है। ध्वनिकार आनंदवर्द्धन ही प्रथम आचार्य थे जिन्होंने इसके महत्त्व को पहचाना और इसे उपेक्षा की कारा से विमुक्त कर काव्यात्मा का गौरव प्रदान किया।

ध्वनिकार के उपरान्त भी व्यंग्य का मार्ग निरंतर प्रशस्त होता रहा है। इसके सामर्थ्य एवं प्रेषणीयता के नवीन आयाम खुलते रहे हैं। अब इससे निश्चित ही अभ्युदय के सिंहद्वार पर तरणनिक्षेप कर दिया है। अब व्यंग्य मात्र काव्यांग ही नहीं प्रत्युत एक स्वतंत्र काव्यविधा के रूप में भी स्वीकृति-सम्मानित हो चुका है। हमारे रचनाकार अब व्यंग्यपरक कविताएं, व्यंग्यपरक कहानियाँ आदि लिखकर ही अपने कविकर्म की इतिश्री नहीं समझते बल्कि वे पूरे जोश एवं उमंग के साथ व्यंग्य लिखते हैं। व्यंग्य और विशेषकर हिन्दी व्यंग्य अब उत्तग ऊंचाइयों का स्पर्श करने जा रहा है। इसमें भी संदेह नहीं है।

अब कुछ अपने संबंध में भी कहना चाहूँगा। मुझे व्यंग्य लेखन के प्रति समर्पित हुए एक युग बीत गया चला है।, वैसे तो और भी कुछ लिख लेता हूँ। अनेक भाषाओं में और अनेक गहरे-उथले मुद्दों पर मतिमंथन करता रहा हूँ। यद्यपि महाकवि तुलसी की चेतावनी ‘जिन कवित्त केहि लाग न नीका’ से बचता रहा हूँ परन्तु एक आशंका जरूर मन को कचोटती रहती है कि कहीं ‘जैक ऑफ़ ऑल ट्रेडस, मास्टर ऑफ़ नन’ फतवा मिलने की नौबत न आ जाए। खैर, अब बात को आगे नहीं बढ़ाऊंगा, मेरा पहला व्यंग्य संग्रह ‘सटक सीताराम’ 1957 में प्रकाशित हुआ था। इसके उपरांत रचनाक्रम निरंतर चलता रहा। ‘सोने के दांत’ ‘अपनी डाली के कांटे’ ‘बातें ये झूठी हैं’ ‘तिनकों के घाट’ ‘गंगा जब उलटी बहे’ ‘हास्याव्यंग्य निबंधः रूपयात्रा’ आदि शीर्षक समयानुकूल होते रहे। इसी अनुक्रम का अब आठवां प्रयास ‘महामूर्ख मंडल’ पाठकों की सेवा में पहुँच रहा है। मुझे विश्वास है कि सुधी अध्येता पहले की तरह प्रस्तुत कृति का समर्थन करके मेरी उत्साह-बृद्धि करेंगे।

1307, सेक्टर 19
चंडीगढ़ -160019

विनीत
संसार चन्द्र


हथेली पर सरसों


जब से देश आजाद हुआ है हमारे कृषिशास्त्री ‘अधिक अन्न उगाओ’ आंदोलन को सफल बनाने के लिए अनेक नवीन प्रयोग करते चले आ रहे हैं परंतु अभी तक हथेली पर सरसों जमाने की कला से संबंधित नवीन रिसर्च की ओर इनका ध्यान आकृष्ट नहीं हुआ था। इधर कुछ दिनों से नए खेवे के विशेषज्ञों में हथेली पर सरसों जमाने की चर्चा बहुत जोर पकड़ गई है। पता नहीं इन नवीन वैज्ञानिकों ने कौन-सी पारसमणि या अलादीन का चिराग खोज लिया है कि ये लोग अपनी नवीन कृषि-संस्कृति के विकास में बीज हल, फर्टिलाइजर आदि विभिन्न कृषि-साधनों के साथ-साथ समग्र उपज की मूलाधार पृथ्वी माता तक से भी उदासीन हो गए हैं,. ‘न हींग लगे न फिटकरी और रंग भी गहरा निकल आए।’

कल जब भरी महफिल में कुछ बेतकल्लुफ मित्र हथेली पर सरसों जमाने की कला के संबंध में बढ़-चढ़कर बातें कर रहे थे तो मैं शरम से पानी-पानी हो रहा था। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि जमाना छलांगें लगाकर कहां से कहां पहुँच गया है। यार लोगों ने सरसों जमाने की साधारण-सी इंडस्ट्री को इतना लार्ज स्केल रूप देकर भी किसी को कानों-कान खबर नहीं होने दी। हम ठहरे अनाड़ी और नादान !! हमें आज तक दही जमाना भी नहीं आया। बच्चे ! उनकी न पूछिए !! वे तो भगवान् की देन हैं। हां, हमने अपने इधर-उधर अड़ोस-पड़ोस में रोब जमाने की कोशिश जरूर की। मगर यहां भी हमारी दाल नहीं लगी और इस मैदान के एक मंजे हुए खिलाड़ी ने हमें बुरी तरह चैंलेज किया। ‘‘अबे ओ ! जमने-जमाने का रोब गांठते फिरते हो ? जमाना है तो हथेली पर सरसों जमाकर दिखाओ।’’

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